Sunday, January 18, 2009

तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

Tuesday, December 18, 2007

अच्छा अनुभव

मेरे बहुत पास मृत्यु
का सुवासदेह पर
उस का स्पर्श मधुर ही कहूँगा
उस का स्वर कानों में
भीतर

मगर प्राणों में
जीवन की लय तरंगित
और उद्दाम किनारों में
काम के बँधा प्रवाह नाम
का एक दृश्य सुबह का
एक दृश्य शाम का
दोनों में क्षितिज

पर सूरज की लाली दोनों में
धरती पर छाया घनी
और लम्बी इमारतों की
वृक्षों की देहों की काली
दोनों में कतारें पंछियों
की चुप और चहकती हुई

दोनों में राशीयाँ फूलों की
कम-ज्यादा महकती हुई
दोनों मेंएक तरह की शान्ति
एक तरह का आवेग
आँखें बन्द प्राण खुले हुए

अस्पष्ट मगर धुले हुऐ
कितने आमन्त्रण
बाहर के भीतर के
कितने अदम्य इरादे
कितने उलझे कितने सादे
अच्छा अनुभव है
मृत्यु मानो
हाहाकार नहीं है
कलरव है!

- भवानीप्रसाद मिश्र

Sunday, November 18, 2007

कारवाँ गुज़र गया

स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से,फूल से,मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,

और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,

पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,मोड़ पर रुके रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।


क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।


हाथ थे मिले कि पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,

वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!


माँग भर चली कि एक,
जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,दूर के मकान से,

पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

- गोपालदास नीरज

Monday, November 12, 2007

बिहारी दोहे

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥

कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥

इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं ।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥

Monday, July 16, 2007

जुगनू

अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चांद औ' तारे,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

गगन में गर्व से उठउठ,
गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं,
नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

तिमिर के राज का ऐसा
कठिन आतंक छाया है,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय का सब समां बांधे
प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस
तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय की रात में सोचे
प्रणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पथ में पलकें बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

- बच्चन

आग

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

- दुष्यन्त कुमार

Sunday, July 15, 2007

VISION 2020

Hari neeli laal peeli
badi badi
tez raftar motarein
Aur unke beech daba, sahma
dara sa aam aadmi

Hare bhare lahrate
bade bade pedo ke neeche
bikhari panniya
Barish ki pradushan dhuli boondein
Ankho se barasti
Sadak par chai ke
thele par vahi Budhiya
AUR
Chai pahuchata vahi chotu

School se nikalta alhad, mast
kilkariya bharta bachpan
aur paas hi sadak par bheekh mangte
nanhe, Asamay bade ho chuke
chote bachche

Paanch sitara aspatal
ka udghatan karte Pradhan Mantri
ko ghoorti
Aspatal me bina ilaaj mare
shishu ki laash

Aur in sabko kar
upekshit
Vikas ke daavo ki hording
niharta MainYah sochta ki haan
2020 mein
Ham
vikasit ho hi jaenge
Dil ko behlane ko Galib...........